महर-ए-ताबाँ हूँ ढल रहा हूँ मैं वक़्त के साथ चल रहा हूँ मैं फ़ज़्ल-ए-रब से हवा मुआफ़िक़ है बुझने वाला था जल रहा हूँ मैं मेरा महबूब शाख़-ए-गुल जैसा सोच कर ही मचल रहा हूँ मैं उस को पाना बहुत कठिन था मगर इस मिशन में सफल रहा हूँ मैं क़द्र की जाए मेरे शे'रों की लोगो मोती उगल रहा हूँ मैं इक तरफ़ रख दिया है अपना मिज़ाज हस्ब-ए-मौसम बदल रहा हूँ मैं रहगुज़र इश्क़ की अरे तौबा जैसे शो'लों पे चल हा हूँ मैं लोग मर जाते हैं 'ज़माँ' इन में जिन मसाइल में पल रहा हूँ में