महव-ए-नग़्मा मिरा क़ातिल जो रहा करता है फ़न्न-ए-मौसीक़ी को भी ज़ब्ह किया करता है इक वो ज़ालिम ही नहीं मुझ पे जफ़ा करता है आसमाँ भी इसी चक्कर में रहा करता है बारिश-ए-कैफ़-ओ-तरन्नुम का समाँ क्या कहिए नग़्मा जैसे लब-ए-मुतरिब से चुआ करता है अब तो हर बात पे क़ुरआन उठा लेते हैं अब तो ईमान सिपर बन के बिका करता है उठ गया मय-कदे से शीशा-ओ-साग़र का रिवाज अब तो चुल्लू से हर इक रिंद पिया करता है साथ तस्बीह के दानों के सुना है हम ने शैख़ बिरयानी की बोटी भी गिना करता है मैं जहाँ में किसी आईन का पाबंद नहीं मेरे घर आप ही क़ानून ढला करता है क्यूँ न वाइज़ के तक़द्दुस का असर हो दिल पर रोज़ मय-ख़ाने में तस्बीह पढ़ा करता है जिस को समझे हुए थे सिद्क़-ओ-सफ़ा का हामी झूट की रस्सी वही रोज़ बटा करता है अज़्म-बिल-जब्र के हाथों जो हुआ हो रौशन वो दिया भी कहीं झोंकों से बुझा करता है अल्लाह अल्लाह ये मेराज-ए-मोहब्बत ऐ 'शौक़' हुस्न अब इश्क़ का पानी ही भरा करता है