महबूब-ए-ख़ुदा ने तुझे नायाब बनाया क़द सर्व किया रुख़ गुल-ए-महताब बनाया जब कुछ न बनी इश्क़ ने बेताब बनाया ख़ुद बन गया शो'ला मुझे सीमाब बनाया उस हुस्न के दरिया ने जो फिर कर मुझे देखा मौज-ए-क़दम-ए-नाज़ को गिर्दाब बनाया सरमस्त-ए-शहादत हैं तिरे इश्क़ में साक़ी आब-ए-दम-ए-ख़ंजर को मय-ए-नाब बनाया आगाह किया इश्क़ ने क़ानून-ए-वफ़ा से जब नाख़ुन-ए-शमशीर को मिज़राब बनाया सब उ'ज़्व-ए-बदन शम-ए-सिफ़त बह गए गल कर इस सोज़िश-ए-दिल ने मुझे सैलाब बनाया इक रात उड़ाई न मिरी दुख़्तर-ए-रज़ से साक़ी ने बत-ए-मय को भी सुरख़ाब बनाया जिस्म ऐसा दमकता है कि कपड़े चमक उट्ठे नैनो को तिरे हुस्न ने कमख़ाब बनाया कब तालिब-ए-राहत हुए ज़ख़्मी-ए-मोहब्बत मरहम की जो हाजत हुई तेज़ाब बनाया आरिज़ ने किया सर-ब-ज़मीं सारे गुलों को क़ामत ने हर इक शाख़ को मेहराब बनिया ऐ 'बहर' बर-ओ-बहर में गर्दिश रहे हम को क़िस्मत ने बगूला तुझे गिर्दाब बनाया