अशआ'र की तख़्लीक़ में जलता है जिगर क्यूँ यारब मुझे बख़्शा है ये जाँ-सोज़ हुनर क्यूँ ग़म इश्क़ की सौग़ात है सीने से लगा ले फूलों की तमन्ना है तो काँटों से हज़र क्यूँ कुछ हद से सिवा हैं मिरे ग़म-ख़्वार वगरना रहती है मिरे हाल पे यारों की नज़र क्यूँ कल जिस को सर आँखों पर बिठाता था ज़माना बैठा है सर-ए-राह वो अब ख़ाक-बसर क्यूँ आरिज़ के गुलाबों पे उदासी की ये शबनम नमनाक हैं आँखें तिरी आज ऐ गुल-ए-तर क्यूँ फिर कौन गया पिछले पहर बज़्म से उठ कर फिर सोग का आलम है ये हंगाम-ए-सहर क्यूँ पत्थर के सिवा 'चाँद' यहाँ कुछ न मिलेगा बैठा है सजाए हुए शीशों का तू घर क्यूँ