महफ़िल में तो बस वो सज रहा है अपने को जो कुछ समझ रहा है दस्तक तिरे हाथ की है लेकिन दरवाज़ा हवा से बज रहा है निकला था मैं घर से मुँह-अँधेरे अब रात का एक बज रहा है फिर ख़ुद को दिखाई दे गया हूँ फिर सोच का तार उलझ रहा है इस दौर का है वही पयम्बर जो अपने हुक़ूक़ तज रहा है क्या हो जो कहीं बरस पड़े वो अब तक जो फ़क़त गरज रहा है इतना भी नहीं हूँ मैं तो 'राशिद' जितना मुझे वो समझ रहा है