महफ़िल में उस पे रात जो तू मेहरबाँ न था ऐसा सुबुक था ग़ैर कि कुछ भी गिराँ न था वस्ल-ए-बुताँ में ख़ौफ़-ए-फ़िराक़-ए-बुताँ न था गोया कि अपने सर पे कभी आसमाँ न था पेश-ए-रक़ीब पुर्सिश-ए-दिल तुम ने ख़ूब की दुश्मन था पर्दा-दार न था राज़-दाँ न था इबरत दिला चुकी थी हमारी सितम-कशी मुतलक़ शब-ए-विसाल अदू शादमाँ न था बिगड़े हुए रक़ीब से वो आए मेरे घर इस हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ का कोई गुमाँ न था सरगर्म-ए-नाला क्यूँ रही बुलबुल बहार में क्या हम न थे असीर कि ज़ौक़-ए-फ़ुग़ाँ न था सरशार-ए-बे-ख़ुदी थे 'असर' बज़्म-ए-यार में क्या जानें हम रक़ीब कहाँ था कहाँ न था