महफ़िलें ख़्वाब हुईं रह गए तन्हा चेहरे वक़्त ने छीन लिए कितने शनासा चेहरे सारी दुनिया के लिए एक तमाशा चेहरे दिल तो पर्दे में रहे हो गए रुस्वा चेहरे तुम वो बेदर्द कि मुड़ कर भी न देखा उन को वर्ना करते रहे क्या क्या न तक़ाज़ा चेहरे कितने हाथों ने तराशे ये हसीं ताज-महल झाँकते हैं दर-ओ-दीवार से क्या क्या चेहरे सोए पत्तों की तरह जागती कलियों की तरह ख़ाक में गुम तो कभी ख़ाक से पैदा चेहरे ख़ुद ही वीरानी-ए-दिल ख़ुद ही चराग़-ए-महफ़िल कभी महरूम-ए-तमन्ना कभी शैदा चेहरे ख़ाक उड़ती भी रही अब्र बरसता भी रहा हम ने देखे कभी सहरा कभी दरिया-चेहरे यही इमरोज़ भी हंगामा-ए-फ़र्दा भी यही पेश करते रहे हर दौर का नक़्शा चेहरे दीप जलते ही रहे ताक़ पे अरमानों के कितनी सदियों से है हर घर का उजाला चेहरे ख़त्म हो जाएँ जिन्हें देख के बीमारी-ए-दिल ढूँढ कर लाएँ कहाँ से वो मसीहा चेहरे दास्ताँ ख़त्म न होगी कभी चेहरों की 'जमील' हुस्न-ए-यूसुफ़ तो कभी इश्क़-ए-ज़ुलेख़ा चेहरे