तू मुअ'म्मा है तो हल इस को भी करना है मुझे तू समुंदर है तो फिर तह में उतरना है मुझे तू ने सोचा था कि जल्वों से बहल जाऊँगा ऐसे कितने ही सराबों से गुज़रना है मुझे कर्ब जितना है तिरी आँख में बरसा दे मगर इसी गिर्दाब में फँस कर तो उभरना है मुझे फिर बपा है वही जज़्बात का तूफ़ान तो क्या इसी बिगड़े हुए मौसम में सँवरना है मुझे इन दिनों चाँद की तस्ख़ीर की है फ़िक्र कि कल चाँदनी बन के ज़माने में उतरना है मुझे किस तरह छोड़ दूँ इस शहर को ऐ मौज-ए-नसीम यहीं जीना है मुझे और यहीं मरना है मुझे रुक गया वक़्त पलट आई हैं बीती सदियाँ यही वो लम्हा है जब 'शाम' बिखरना है मुझे