ये पानी साअ'तों का आईने सा क्यों नहीं है नदी से आसमानी रंग झलका क्यों नहीं है मिरी रातों को जिस जुगनूँ की इतनी आरज़ू थी वो मेरी जुस्तुजू में जलता बुझता क्यों नहीं है मैं मुड़ने दूँगी उस को अजनबी मंज़िल की जानिब वो मेरे ख़ून में बहता है मेरा क्यों नहीं है तअ'ज्जुब है कि मैं रस्ते बनाने में लगी हूँ वो दरिया है तो दीवारें गिराता क्यों नहीं है ये ग़म की चाप थम जाए तो दिल से पूछती हूँ ख़ुशी के आरिज़ों का रंग गहरा क्यों नहीं है मैं हँसती हूँ तो आँसू खौलने लगते हैं 'महनाज़' ये पानी ग़म के शो'लों पर उबलता क्यों नहीं है