महताब है बहार है साक़ी है जाम है कितना सुकून दिल के लिए इंतिज़ार है हर राह कहकशाँ की तरह है सजी हुई हमराह मेरे कौन ये महव-ए-ख़िराम है साक़ी की चश्म-ए-मस्त पिलाती रहे जिसे उस बादा-कश को जाम से पीना हराम है क्यूँकर न राह-ए-इश्क़ में वो सरबुलंद हो क़िस्मत में जिस की गेसू-ए-जानाँ की शाम है खिलने लगे हैं फूल मिरे दिल की शाख़ पर शायद कोई हसीं है जो बाला-ए-बाम है हर सम्त जल्वा-रेज़ है हुस्न-ओ-जमाल-ए-यार ऐ बे-ख़ुदी-ए-इश्क़ ये कैसा मक़ाम है करते हैं क़त्ल सब को निगाहों के तीर से उन मह-वशों के पास यही एक काम है अदना सा इक करिश्मा है तेरी निगाह का सहन-ए-चमन में मौसम-ए-गुल जिस का नाम है ख़ाली कोई भी साग़र-ए-दिल रह न जाएगा 'शब्बीर' आज बादा-ए-दीदार-ए-आम है