महताब नहीं निकला सितारे नहीं निकले देते जो शब-ए-ग़म में सहारे नहीं निकले कल रात निहत्ता कोई देता था सदाएँ हम घर से मगर ख़ौफ़ के मारे नहीं निकले क्या छोड़ के बस्ती को गया तू कि तिरे बा'द फिर घर से तिरे हिज्र के मारे नहीं निकले बैठे रहो कुछ देर अभी और मुक़ाबिल अरमान अभी दिल के हमारे नहीं निकले निकली तो हैं सज-धज के तिरी याद की परियाँ ख़्वाबों के मगर राज दुलारे नहीं निकले कब अहल-ए-वफ़ा जान की बाज़ी नहीं हारे कब इश्क़ में जानों के ख़सारे नहीं निकले अंदाज़ कोई डूबने के सीखे तो हम से हम डूब के दरिया के किनारे नहीं निकले वो लोग कि थे जिन पे भरोसे हमें क्या क्या देखा तो वही लोग हमारे नहीं निकले अशआ'र में दफ़्तर है मआ'नी का भी 'रहबर' हम लफ़्ज़ों ही के महज़ सहारे नहीं निकले