महज़ ये वहम है या है मिरा अपना साया

महज़ ये वहम है या है मिरा अपना साया
कौन ये चाँद की नगरी से उतर कर आया

अज्नबिय्यत के भी आदाब हुआ करते हैं
अजनबी था तो मुझे देख के क्यों घबराया

मैं मुसाफ़िर था मिरा हक़ था हर इक रस्ते पर
ये अलग बात कि रस्तों ने मुझे भटकाया

जब अंधेरा था तो हम दोनों में तफ़रीक़ न थी
चाँद उभरा तो जुदा हो गया मेरा साया

ये जो दो पत्ते हैं कब इन में से इक गिर जाए
मैं ने इस दौर में हर एक को तन्हा पाया

वक़्त इक आहनी दीवार भी बन सकता है
कितने लम्हों को टटोला तो ये नुक्ता पाया

दूर से कितने चमकते हुए मोती देखे
जिस को नज़दीक से देखा उसे पत्थर पाया

रूह का राग तो हर शख़्स ने छेड़ा 'फ़रहान'
जिस्म में क्या था कि हर इक ने उसे ठुकराया


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