मैं आलम-ए-इम्काँ में जिसे ढूँढ रहा हूँ वो पूछ रहा है कि किसे ढूँढ रहा हूँ माज़ी के बयाबाँ में जो गुम हो गया मुझ से मैं हाल के जंगल में उसे ढूँढ रहा हूँ गो पेश-ए-नज़र एक तमाशा है व-लेकिन ऐ वज्ह-ए-तमाशा मैं तुझे ढूँढ रहा हूँ तू हाथ जो आता नहीं इस का है सबब क्या शायद मैं तुझे तुझ से परे ढूँढ रहा हूँ छीना था जिसे सुब्ह-ए-गुरेज़ाँ की चमक ने उस लम्हे को अब शाम ढले ढूँढ रहा हूँ हर इक से जो कहता हों कहीं 'अर्श' को ढूँडो क्यूँ अपने बहाने मैं उसे ढूँढ रहा हूँ