मैं अब उक्ता गया हूँ फुर्क़तों से निकालूँ किस तरह तुझ को रगों से जुदाई ताक में बैठी हुई थी मोहब्बत कर रहे थे मश्वरों से तुझे मैं ने मुझे तू ने गँवाया मगर अब फ़ाएदा इन तज़्किरों से दुआएँ हो गईं ना रद तुम्हारी मैं क़ाइल ही नहीं हूँ फ़लसफ़ों से मिरे सब हौसले मारे गए हैं तुम्हारी कम-सिनी के फ़ैसलों से तुम्हारी याद ख़ूनी है मिरी भी लड़ें हम किस तरह इन भेड़ियों से वो वहशत है कि है वो सोग बरपा मैं हँसता तक नहीं हूँ क़हक़हों से तुम्हारे ग़म कि जाँ को आ गए हैं नहीं शायद मगर हाँ कुछ दिनों से हमारे बीच इक दीवार है अब इसे ऊँचा करेंगे नफ़रतों से