मैं अगर कर दूँ रक़म जोश-ए-जुनूँ काग़ज़ पर लफ़्ज़ बन बन के ढले दिल का ये ख़ूँ काग़ज़ पर क्या ख़बर कौन से हर्फ़ों को मिलाते होंगे कभी लिक्खा ही नहीं हम ने सुकूँ काग़ज़ पर तय-शुदा है की तमाम-उम्र बदन उठ न सके मैं कभी लिख दूँ अगर सर को निगूँ काग़ज़ पर टूट के फिर तो अदू के कहीं काम आते हैं जब भी चलता है मोहब्बत का फ़ुसूँ काग़ज़ पर उस ने जब बाग़-ए-निहाँ को निहाँ रक्खा गुलज़ार हम ने भी सब्ज़ रखा दश्त-ए-दरूँ काग़ज़ पर मुझ से बरहम है फ़लक इतनी सी ख़्वाहिश पे मिरी तोड़ कर एक सितारे को रखूँ काग़ज़ पर अब यही काम है तस्वीर-नुमाई तेरी और फिर पहरों तुझे तकता रहूँ काग़ज़ पर जू-ए-ख़ूँ आँखों तलक आने लगी थी सो मुझे काट कर रखना पड़ा ज़ख़्म-ए-दरूँ काग़ज़ पर कुछ हक़ीक़त के भी लफ़्ज़ों को जगह दो 'नायाब' लिखते रहते हो भला कर्ब ही क्यूँ काग़ज़ पर