मैं अपने अश्क में ख़ुद को भिगो रहा हूँ अभी ख़ता को अश्क-ए-नदामत से धो रहा हूँ अभी मुझे न चाहिए तकिया किसी भी तकिए का मैं माँ के हाथ पे सर रख के सो रहा हूँ अभी मिरे मिज़ाज से नफ़रत रही है सूरज को मैं हम-कलाम जो जुगनू से हो रहा हूँ अभी किसी भी हाल में सौदा ज़मीर का न करो मैं अर्ज़-ए-नौ में यही बीज बो रहा हूँ अभी निकल पड़ा हूँ मैं ख़ुद को तलाश करने को मैं अपने आप में ख़ुद को ही खो रहा हूँ अभी मिले जो बार क़ज़ा के तो में उठा भी सकूँ तभी हयात के हर बोझ ढो रहा हूँ अभी मैं बारिशों में कभी धूप की हरारत में घरौंदा ग़ौर से देखा तो रो रहा हूँ अभी