मैं अपनी वफ़ाओं का भरम ले के चली हूँ हाथों में मोहब्बत का अलम ले के चली हूँ चलने ही नहीं देती थी इक वा'दे की ज़ंजीर मुश्किल था मगर बार-ए-सितम ले के चली हूँ क्या पूछते हो मुझ से मिरे ज़ाद-ए-सफ़र का अस्बाब में बस याद-ए-सनम ले के चली हूँ जिस शहर के हर मोड़ पे काँटे ही बिछे हैं इस शहर में भी ज़ख़्मी क़दम ले के चली हूँ कोई भी सफ़र मैं ने अधूरा नहीं छोड़ा चलना है तो मंज़िल की क़सम ले के चली हूँ मुझ को है यक़ीं हर्फ़ की हुरमत पे हमेशा तन्हा थी मगर अपना क़लम ले के चली हूँ ख़ुश-बख़्त है वो जिस के मुक़द्दर में 'इरम' है मैं साथ में इक बाग़-ए-इरम ले के चली हूँ