मैं बे-अमान सही फिर भी ये गुमान तो है ज़मीं है पाँव तले सर पे आसमान तो है हर एक लम्हा किसी तीर का है डर लेकिन मैं मुतमइन हूँ कि मेरे परों में जान तो है मैं इस तरह दर-ओ-दीवार से हूँ बेगाना कि घर नहीं न सही घर का इक निशान तो है मैं अपनी कश्ती-ए-उम्मीद से नहीं मायूस फटा पुराना सही फिर भी बादबान तो है मैं अपनी ज़ात से बाहर निकल के सोचता हूँ नहीं है रब्त मगर मेरा ख़ानदान तो है चराग़-ए-जाँ का मुक़द्दर हो जो भी ऐ 'मासूम' हवा के सामने मसरूफ़-ए-इम्तिहान तो है