मैं भी क्या ज़ब्त आज़माता हूँ तौबा करता हूँ भूल जाता हूँ ग़म सा रहता हूँ तुझ से दूरी में और क़ुर्बत में खो सा जाता हूँ अपनी हस्ती की अज़्मतें अक्सर इंकिसारी से झुक के पाता हूँ क्यूँ मुक़य्यद हूँ ज़ात में अपनी जबकि दुनिया से दिल लगाता हूँ उस की ज़ुल्फ़ों को अब के सुलझा कर ख़ुद को उलझा हुआ सा पाता हूँ जाने वाले को ये नहीं मा'लूम मैं तसव्वुर में उस को लाता हूँ ग़म-गुसारी में दोस्त की 'आदिल' रंज सहता हूँ मुस्कुराता हूँ