मैं बिल-उमूम जो होंटों को बंद रखती हूँ मुख़ालिफ़त में भी अपनी पसंद रखती हूँ मैं जानती हूँ कि मुझ से न बन पड़ेगा कुछ यही बहुत है दिल-ए-दर्द-मंद रखती हूँ ये कम नहीं कि जुलूस-ए-जहाँ में रह कर भी किसी की याद का परचम बुलंद रखती हूँ तिरे उसूल-ए-मोहब्बत से मुझ को शिकवा है मगर मैं ख़ुद को तिरा कार-बंद रखती हूँ अगर ये आँधियाँ चलती हैं मेरे सर में 'क़मर' तो क्यूँ मैं घर के दरीचों को बंद रखती हूँ