मैं चंचल इठलाती नदिया भँवर से कब तक बचती मैं लहर लहर में डूब के उभरी उभर उभर के डूबी मैं मैं कोई पत्थर तो नहीं थी मुझ को छूकर भी देखा बर्फ़ को थोड़ी आँच तो मिलती आप ही आप पिघलती मैं अंग लगा कर बेदर्दी ने आग सी भर दी नस नस में टूट गए सब लाज के घुंघरू ऐसा झूम के नाची मैं प्रेम के बंधन में बंध कर साजन इतनी दूरी क्यूँ तुम भी प्यासे प्यासे बादल प्यासी प्यासी धरती मैं आने वाले द्वार पे पहरों दस्तक दे कर लौट गए हाथ में ले कर पढ़ने बैठी जब प्रीतम की चिट्ठी मैं सन्नाटे में जब जब छनकी बैरी पड़ोसन की पायल जाने वाले याद में तेरी रात रात-भर जागी मैं क्या अंधा विश्वास था ऐ 'नसरीन' वो मुझ को मना लेगा हर बंधन से छूट गया वो हाए क्यूँ उस से रूठी मैं