मैं दश्त में गर ख़ुद को मुहय्या नहीं करता गर्दिश से रिहा मुझ को बगूला नहीं करता पहचान को इक दिल ही मदद-गार बहुत है सो पेश कोई और हवाला नहीं करता देखा ही नहीं आँख ने जिस शहर को पहले वो भी मिरी हैरत में इज़ाफ़ा नहीं करता हर ज़ख़्म की लज़्ज़त का परस्तार हूँ लेकिन सैराब मुझे ये भी निवाला नहीं करता मंज़िल से है ये कैसी अक़ीदत कि सफ़र में राही कोई रस्ते पे भरोसा नहीं करता अब दहर में अग़्यार की रस्मों का चलन है अब काम अज़ीज़ों का तरीक़ा नहीं करता कैसा है मिरी ज़ात का बिखराओ कि 'राहत' सहरा मिरी वुसअत का अहाता नहीं करता