मैं इक असरार था कोई भी न समझा मुझ को देखने को तो हर इक आँख ने देखा मुझ को यूँ तो जीने को जिए जाता हूँ इक मुद्दत से कैसे जीना है ये ढब फिर भी न आया मुझ को मैं मसीहा की तरह हक़ का परस्तार न था जाने क्यों लोगों ने फिर दार पे खींचा मुझ को मौत आई कि ग़म-ए-ज़ीस्त के सहराओं में मिल गया एक घने पेड़ का साया मुझ को गर्दिश-ए-वक़्त ने आँखों को जिला बख़्शी है वर्ना ये चेहरे भला कौन दिखाता मुझ को नाम 'ज़ाहिद' है तबीअत है मगर रिंदाना नाम बदला न तबीअ'त ने ही छोड़ा मुझ को