मैं एक क़र्ज़ हूँ सर से उतार दे मुझ को लगा के दाँव पे इक रोज़ हार दे मुझ को बिखर चुका हूँ ग़म-ए-ज़िंदगी के शानों पर अब अपनी ज़ुल्फ़ की सूरत सँवार दे मुझ को हज़ार चेहरे उभरते हैं मुझ में तेरे सिवा मैं आइना हूँ तो गर्द-ओ-ग़ुबार दे मुझ को किसी ने हाथ बढ़ाया है दोस्ती के लिए फिर एक बार ख़ुदा ए'तिबार दे मुझ को मैं भूक प्यास के सहरा में अब भी ज़िंदा हूँ जवाहरात की किरनों से मार दे मुझ को