मैं गुफ़्तुगू हूँ कि तहरीर के जहान में हूँ मुझे समझ तो सही मैं तिरी ज़बान में हूँ ख़ुद अपनी साँस कि रुकती है अपने चलने से ये क्या घुटन है मैं किस तंग से मकान में हूँ जिला रहा है मरे जिस्म को मिरा ही कमाल मैं एक तीर हूँ टूटी हुई कमान में हूँ गुज़र रही है मरे सर से गाहकों की निगाह ज़रा सी चीज़ हूँ लेकिन बड़ी दुकान में हूँ मिरे क़रीब से गुज़रा नहीं है संग-तराश मुजस्समा हूँ मैं अब तक मगर चटान में हूँ मुझी में गूँज रही है मिरे सुख़न की सदा नवा-ए-गर्म हूँ मैं दश्त-ए-बे-ज़बान में हूँ 'अदीम' बैठा हुआ हूँ परों के ढेर पे मैं ख़ुश इस तरह हूँ कि जैसे किसी उड़ान में हूँ