मैं ही मैं बिखरा हुआ हूँ राह-ता-मंज़िल तमाम ख़ाक-दाँ ता-आसमाँ छाया है मुस्तक़बिल तमाम पी चुकी कितनी ही मौजों का लहू साहिल की रेत लाशें ही लाशें नज़र आईं सर-ए-साहिल तमाम घर को दिन भर की मता-ए-रह-नवर्दी सौंप दी सई-ए-पैहम का ग़ुबार-ए-शहर था हासिल तमाम देखना सब ने उठा रक्खी है काँधों पर सलीब भेस में मक़्तूल के रू-पोश हैं क़ातिल तमाम माहताब उभरा भी तो जाने कहाँ डूबा कि रात कर दिया मौजों ने छलनी सीना-ए-साहिल तमाम