मैं हूँ वो आँख जिसे ख़ून-ए-जिगर ले डूबे मैं वो नाला हूँ जिसे उस का असर ले डूबे मैं हूँ वो रात सितारे जिसे गहरा कर दें मैं हूँ वो बज़्म जिसे रक़्स-ए-शरर ले डूबे वो मय-ए-तुंद हूँ मैं जिस से जिगर चर जाए मैं वो दरिया हूँ जो अपना ही गुहर ले डूबे वो सनम मैं ने तराशे कि ख़ुदा चौंक उठे मैं वो आज़र हूँ जिसे मश्क़-ए-हुनर ले डूबे गर्द को भी न पहुँच सकते थे रहज़न जिन की उन्हीं मंज़िल से भी आगे के सफ़र ले डूबे वो जो फिरते थे ख़बर तीरगियों की लेते इधर आए तो कई चाँद उधर ले डूबे कैसे ख़ामोश अँधेरों में छुपे बैठे हैं ऐसे अंधेर कि उम्मीद-ए-सहर ले डूबे इब्न-ए-आदम की तो बू तक न रही गलियों में मेरी बस्ती को ख़ुदाओं के ये घर ले डूबे नाम-लेवाओं को अपने कभी ख़ल्वत में परख इस तमाशे को यही शो'बदा-गर ले डूबे मेरे हमराज़ ने क्या ख़ूब कहा था 'राहील' तुझे मुमकिन है यही ज़ौक़-ए-नज़र ले डूबे