मैं जब पहले-पहल इस शहर-ए-ना-पुरसाँ में आया था सभी अपने नज़र आते थे लेकिन कौन अपना था हसीं थे दूर ही से साहिल-ओ-दरिया के नज़्ज़ारे मगर जब डूब कर देखा तो साहिल था न दरिया था उसे इन फ़ासलों का कुछ न कुछ एहसास तो होगा कभी जिस शख़्स के सीने में मेरा दिल धड़कता था सिमट आया हो जैसे दर्द मेरा उस के लहजे में न जाने आज किस आलम में उस ने हाल पूछा था कहाँ तक दिल में शहर-ए-आरज़ू आबाद रखते हम जब अपने सामने हद्द-ए-नज़र तक ग़म का सहरा था जहाँ-भर को ख़बर कैसे हुई तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ की मुझे तुम से तअ'ल्लुक़ था जहाँ से वास्ता क्या था