मैं ज़हर रही हर शाम रही बारिश की हवा बदनाम रही पाताल में दरिया जज़्ब हुए मैं सतह रही दो-गाम रही इम्कान-ए-असर पर शम्अ'-ए-दुआ बुझने की अदा का नाम रही मिरे तन्हा दश्त के जज़्बों में तिरी याद तह-ए-आलाम रही कोंपल को धूप हवा से क्या मिट्टी की नमी नाकाम रही बादल मिरी छत पर कब ठहरे दीवार पे गहरी शाम रही इस घर के अँधेरे लम्हों में बस एक किरन सर-ए-बाम रही मैं छाँव के सुख से लौट गई तिरी धूप मिरा आराम रही