मैं कब रहीन-ए-रेग-ए-बयाबान-ए-यास था सद-ख़ेमा-ए-बहार मिरे आस पास था तोड़ा है बार-हा मुझे दिल की शिकस्त ने चेहरा मगर ज़रा भी न मेरा उदास था सहरा-ए-जाँ की धूप में थीं वहशतें बहुत लेकिन न मेरा अज़्म कहीं बद-हवास था ये और बात है कि बरहना थी ज़िंदगी मौजूद फिर भी मेरे बदन पर लिबास था मैं ने हर एक लम्हे को चाहा है टूट कर था ज़िंदगी-परस्त मोहब्बत-शनास था मौसम कुछ आए ऐसे भी शहर-ए-ख़याल में मुझ को न जिन का इल्म न कोई क़यास था फ़िक्र-ए-सुख़न ही 'अश्क' है ज़ौक़-ए-अमल मिरा इस के सिवा न कार-ए-जहाँ कोई रास था