मैं कि अब तेरी ही दीवार का इक साया हूँ कितने बे-ख़्वाब दरीचों से गुज़र आया हूँ मुझ को एहसास है हालात की मजबूरी का बेवफ़ा कह के तुझे आप भी शरमाया हूँ मुझ को मत देख मिरे ज़ौक़-ए-समाअत को तो देख कि तिरे जिस्म की हर तान पे लहराया हूँ ऐ मोअर्रिख़ मिरी उजड़ी हुई सूरत पे न जा शहर-ए-वीराँ हूँ मगर वक़्त का सरमाया हूँ रौशनी फैल गई है मिरी ख़ुशबू की तरह मैं भी जलते हुए सहराओं का हम-साया हूँ हम-सफ़र लाख मिरी राह का पत्थर भी बने फिर भी ज़ेहनों के दर-ओ-बाम पे लहराया हूँ नई मंज़िल का जुनूँ तोहमत-ए-गुमराही है पा-शिकस्ता भी तिरी राह में कहलाया हूँ फिर नुमू पाई है इक दर्द-ए-ख़ुश-आग़ाज़ के साथ दहर में जुरअत-ए-इज़हार का पैराया हूँ उम्र भर बुत-शिकनी करता रहा आज मगर अपनी ही ज़ात के कोहसार से टकराया हूँ दहर में अज़्मत-ए-आदम का निशाँ हूँ 'फ़ारिग़' कभी कोहसार कभी दार पे लहराया हूँ