मैं लम्हा लम्हा नए अपने ख़द्द-ओ-ख़ाल में था कि जो भी कुछ था मैं अपनी शिकस्त-ए-हाल में था नज़र पड़ा तो वो ऐसे न देखा हो जैसे वो अक्स अक्स था और अपने ही जमाल में था तिरे ख़याल से मैं इस क़दर हुआ मानूस तू सामने था मगर मैं तिरे ख़याल में था शिकस्त-ओ-रेख़्त ने ही मुझ को ख़ुद-कफ़ील किया था ज़ख़्म ज़ख़्म मगर अपने इंदिमाल में था तुम्हारे वा'दे से सदियों की उम्र ले आया जो लम्हा क़ुर्बत-ओ-दूरी के इत्तिसाल में था