मैं मुतमइन न हुआ तुझ को ग़म सुना के भी अंधेरा और बढ़ा है दिया जला के भी क़ुबूल करते हुए दिल तड़पने लगता है अजीब होते हैं कुछ फ़ैसले ख़ुदा के भी वो आसमान मिरी दस्तरस में क्या आता हज़ार कोशिशें कीं एड़ियाँ उठा के भी तुझे गले से लगाएँ तो जाँ निकलती है असीर-ए-जिस्म हैं लेकिन तिरी हया के भी मगर ये क्या कि परिंदे शजर से गिर जाएँ अगरचे होते हैं कुछ फ़ाएदे हवा के भी क़फ़स का क़ीमती पंछी हूँ सो ख़रीदते वक़्त मुझे उड़ा के भी देखा गया गिरा के भी नहीं है दश्त फ़क़त प्यास का हवाला 'अदील' मैं रो पड़ा हूँ समुंदर को आज़मा के भी