मैं ने काग़ज़ पे सजाए हैं जो ताबूत न खोल जी उठे लफ़्ज़ तो मैं ख़ौफ़ से मर जाऊँगा कौन ख़ुशबू से हवाओं का बदन छीनता है तू मिरे साथ रहेगा मैं जिधर जाऊँगा रेग-ए-साहिल से रही अपनी शनासाई तो फिर एक दिन गहरे समुंदर में उतर जाऊँगा चाँद-तारों की तरह मैं भी हूँ गर्दिश में 'रशीद' हाँ अगर तू ने पुकारा तो ठहर जाऊँगा