मैं पा-शिकस्ता कहाँ तिफ़्ल-ए-नय सवार कहाँ फिर उस की गर्द कहाँ और मिरा ग़ुबार कहाँ तुम्हारे वस्ल से ठहरेगा ये दिल-ए-बे-ताब बग़ैर आइना सीमाब को क़रार कहाँ बहुत दिनों से हूँ आमद का अपनी चश्म-ब-राह तुम्हारा ले गया ऐ यार इंतिज़ार कहाँ जो सर्द-मेहरी से ठंडा हो उस के ऐ मह-रू रगों में ख़ून कहाँ नब्ज़ में बुख़ार कहाँ निकल के सीने से जा पहुँचे तूर-ए-सीना पर गई चमकने मिरी आह-ए-पुर-शरार कहाँ जो समझें तेरे दम-ए-तेग़ को तरीक़ अपना बता दे दहर में हैं ऐसे सर-गुज़ार कहाँ फ़लक की सुल्ह को समझे रहो 'वक़ार' जिदाल बने भी दोस्त जो दुश्मन तो ए'तिबार कहाँ