मैं समुंदर था मुझे चैन से रहने न दिया ख़ामुशी से कभी दरियाओं ने बहने न दिया अपने बचपन में जिसे सुन के मैं सो जाता था मेरे बच्चों ने वो क़िस्सा मुझे कहने न दिया कुछ तबीअत में थी आवारा मिज़ाजी शामिल कुछ बुज़ुर्गों ने भी घर में मुझे रहने न दिया सर-बुलंदी ने मिरी शहर-ए-शिकस्ता में कभी किसी दीवार को सर पर मिरे ढहने न दिया ये अलग बात कि मैं नूह नहीं था लेकिन मैं ने कश्ती को ग़लत सम्त में बहने न दिया बाद मेरे वही सरदार-ए-क़बीला था मगर बुज़-दिली ने उसे इक वार भी सहने न दिया