मैं शहरी हूँ मगर मेरी बयाबानी नहीं जाती जुनूँ कुछ भी पहन ले उस की उर्यानी नहीं जाती नहीं कुछ और होगा वो मोहब्बत तो नहीं होगी कि इतनी रौशनी इतनी ब-आसानी नहीं जाती खुले हैं सारे दरवाज़े हमारे क़ैद-ख़ाने के कि दरवाज़े तलक ज़ंजीर-ए-ज़िंदानी नहीं जाती बुतों को देखते ही हूक सी इक दिल में उठती है दिल-ए-मोमिन से याद-ए-कुफ़्र-सामानी नहीं जाती उठा लाता हूँ मैं बाज़ार से रोज़ इक नई आफ़त मिरे घर से बला-ए-साज़-ओ-सामानी नहीं जाती अज़ल का दाग़-ए-हिज्र इतना हमारे दिल पे रौशन है कि अपनी वस्ल की अर्ज़ी कहीं मानी नहीं जाती मैं कब का उस की हद्द-ए-दीद से बाहर निकल आया मगर उस की तरफ़ से मेरी निगरानी नहीं जाती तमाम आ'साब पर तारी है नसरी नज़्म दुनिया की मगर 'एहसास'-साहब की ग़ज़ल-ख़्वानी नहीं जाती