मैं सिर्फ़ वो नहीं जो नज़र आ गया तुझे मुज़्दा फिर इज़्न-ए-बार-ए-दिगर आ गया तुझे सहरा में जान देने के मौक़े तो अब भी हैं वो क्या जुनूँ था ले के जो घर आ गया तुझे पहले कभी तो मौत को तुझ से गिला न था जीने का आज कैसे हुनर आ गया तुझे इस दौर में ये फ़ख़्र भी किस को नसीब है चेहरा तो आईने में नज़र आ गया तुझे इस शहर में तो कुछ नहीं रुस्वाई के सिवा ऐ 'दिल' ये इश्क़ ले के किधर आ गया तुझे