मैं तेरा मुंतज़िर हूँ जल्वा-ए-जानाना बरसों से छलक उट्ठा है मेरे सब्र का पैमाना बरसों से वफ़ा की पासदारी है न जल जाने का जज़्बा है बदल डाली है किस ने फ़ितरत-ए-परवाना बरसों से न ला गर्दिश में उस के सामने पैमाना ऐ साक़ी न जाने कौन से ज़िंदाँ में था दीवाना बरसों से उन्हें इसरार है मैं उन को घर आने की दावत दूँ कहूँ कैसे उन्हें घर है मिरा वीराना बरसों से क़यामत है उसी पर बेवफ़ा होने की तोहमत है जो देता आ रहा है जान का नज़राना बरसों से न जाने कितनी बरसातों में ढूँडा है 'क़मर' हम ने नज़र आते हैं वो मय-कश न वो मय-ख़ाना बरसों से