मैं तेरी निगह में इक चमन था ये हुस्न-ए-नज़र था हुस्न-ए-ज़न था पक्का था जो मन का ख़स्ता-तन था वो क़ैस कहाँ था कोहकन था मख़मूर सी हो रही थीं आँखें रुझान-ए-गुनाह ज़ौ-फ़गन था दुनिया मक़्तल बनी थी और दिल अपने ही ख़याल में मगन था ग़म-ख़ाना हो के रह गया है वो लफ़्ज़ जो माबद-ए-सुख़न था उड़ता फिरता ग़ुबार हर-सू ये दश्त-ए-रवाँ कभी चमन था कहने को तो मर चुकी थी ख़्वाहिश बाक़ी मगर उस का बाँकपन था फ़नकार थे हम न थे कफ़न-कश ज़िंदों के लिए हमारा फ़न था क्या रूह दमक दमक उठी थी कुंदन सा ख़याल का बदन था गो होंट 'रज़ा' के सिल गए थे ख़ामे की ज़बाँ से नग़्मा-ज़न था