मैं तो इक लम्हा-ए-परीदा रहा जाने क्यूँ वो बहुत कशीदा रहा रू-ब-रू ज़िक्र-ए-ना-शुनीदा रहा उठ गया तो मिरा क़सीदा रहा मैं भी बंदा ही था ख़ुदा की क़सम ये अलग है कि बरगुज़ीदा रहा और तो कोई ग़म न था उस को बस मिरी चाह में तपीदा रहा शब की पेशानी का मैं झूमर था क्या हुआ गर हवा-गुज़ीदा रहा मेरे हिस्से में उस सहीफ़े का इक वरक़ था वही दरीदा रहा कोई उम्मीद बर न आती थी ज़िंदगी भर सितम-रसीदा रहा