मैं तुझ से लाख बिछड़ कर यहाँ वहाँ जाता मिरी जबीन से सज्दों का कब निशाँ जाता ज़मीन मुझ को समझती न आसमाँ कोई गुनाहगार ही कहलाता मैं जहाँ जाता नसीब से तो मिले थे फ़क़त ये ख़ाली हाथ फ़राख़-दिल वो न होता तो मैं कहाँ जाता मुझे ख़बर न थी इस घर में कितने कमरे हैं मैं कैसे ले के वहाँ सारी दास्ताँ जाता मैं एक गूँज की मानिंद लौटता उस तक जहाँ से मुझ को बुलाता मैं बस वहाँ जाता