मैं उस को ढूँढता हूँ तिरे इल्तिफ़ात में तारीख़ छोड़ आई जिसे सोमनात में मुट्ठी में अपनी ऐसे लकीरों को क़ैद कर जैसे तिरा नसीब हो तेरे ही हात में कैसे यक़ीन आए भला उस की बात का जिस का मिज़ाज मिल न सके बात बात में वो जो फ़ुज़ूल-ख़र्च है कल ना-शनास भी बरकत तलाश करता है छे आठ सात में सौदागरों में कितनी ही रातें गुज़ार कर क़ीमत की नब्ज़ डूब गई एक रात में इंसाँ ने मेहर-ओ-माह के पर्दे उठा दिए ख़ुद को तलाश कर न सका काएनात में