मैं उस मक़ाम पे हूँ जिस को ला-मकाँ कहिए ज़मीं न कहिए उसे और न आसमाँ कहिए फ़ज़ा-ए-दिल न मोअ'त्तर हो जिस से ऐ हमदम न बोस्ताँ उसे कहिए न गुलिस्ताँ कहिए विसाल-ए-यार मयस्सर न हो तो क्या ग़म है ख़याल-ए-यार तो है जिस को दिल-सिताँ कहिए रफ़ीक़ जितने थे अपने वो उठ गए सारे है कौन बज़्म में अब जिस को राज़दाँ कहिए चमन में रह के भी 'क़ैसर' मुझे नहीं मा'लूम बहार कहिए उसे या उसे ख़िज़ाँ कहिए