मैं उस परी का अगर मुद्दआ नहीं समझा समझ में क्या नहीं आया मैं क्या नहीं समझा यही बहुत है कि इस बार भी मैं दुश्मन को बुरा समझते हुए भी बुरा नहीं समझा वो मानता है मिरे इख़्तिलाफ़ के हक़ को उसे बिठाया है सर पर ख़ुदा नहीं समझा चराग़-ओ-आइना हैरान क्यूँ नहीं होंगे कि मैं सबाहत-ए-गुल की अदा नहीं समझा किसी बिखरते हुए ख़्वाब के तआ'क़ुब में निकल पड़ा हूँ मगर रास्ता नहीं समझा बहुत से रंज सहे अपनी जान पर लेकिन तिरे वजूद को ख़ुद से जुदा नहीं समझा हज़ार मैं ने हर इक चीज़ की वज़ाहत की मगर वो शख़्स मिरा मसअला नहीं समझा उसी ने आग लगाई थी मेरे हाथों को जिसे मैं भूल से बर्ग-ए-हिना नहीं समझा किसी की उड़ती हुई नींद की हक़ीक़त को नगर में कोई भी मेरे सिवा नहीं समझा खड़ा हुआ था कहीं बाम-ए-अर्श पर 'साजिद' मगर ज़मीन को तहतुस-सुरा नहीं समझा