मैं वहम हूँ कि हक़ीक़त ये हाल देखने को गिरफ़्त होता हूँ अपना विसाल देखने को चराग़ करता हूँ अपना हर एक अज़्व-ए-बदन तरस गया हूँ ग़म-ए-ला-ज़वाल देखने को ये आदमी हैं कि पत्थर जवाब देते नहीं चले हैं कोह-ए-निदा से सवाल देखने को न शेर हैं न सताइश अजब ज़माना है कहीं पे मिलता नहीं अब कमाल देखने को मैं 'तूर' आख़िरी साअत का एक मंज़र हूँ वो आ रहा है मुझे बे-मिसाल देखने को