मैं ये किस के नाम लिक्खूँ जो अलम गुज़र रहे हैं मिरे शहर जल रहे हैं मिरे लोग मर रहे हैं कोई ग़ुंचा हो कि गुल हो कोई शाख़ हो शजर हो वो हवा-ए-गुलिस्ताँ है कि सभी बिखर रहे हैं कभी रहमतें थीं नाज़िल इसी ख़ित्ता-ए-ज़मीं पर वही ख़ित्ता-ए-ज़मीं है कि अज़ाब उतर रहे हैं वही ताएरों के झुरमुट जो हवा में झूलते थे वो फ़ज़ा को देखते हैं तो अब आह भर रहे हैं बड़ी आरज़ू थी हम को नए ख़्वाब देखने की सो अब अपनी ज़िंदगी में नए ख़्वाब भर रहे हैं कोई और तो नहीं है पस-ए-ख़ंजर-आज़माई हमीं क़त्ल हो रहे हैं हमीं क़त्ल कर रहे हैं