मैं यूँ तो नहीं है कि मोहब्बत में नहीं था अलबत्ता कभी इतनी मुसीबत में नहीं था अस्बाब तो पैदा भी हुए थे मगर अब के उस शोख़ से मिलना मिरी क़िस्मत में नहीं था तय मैं ने किया दिन का सफ़र जिस की हवस में देखा तो वही रात की दावत में नहीं था इक लहर थी ग़ाएब थी जो तूफ़ान-ए-हवा से इक लफ़्ज़ था जो ख़त की इबारत में नहीं था कैफ़ियतें सारी थीं फ़क़त हिज्र तक उस के मैं सामने आ कर किसी हालत में नहीं था क्या रंग थे लहराए थे जो राह-रवी में क्या नूर था जो शम-ए-हिदायत में नहीं था लग़्ज़िश हुई कुछ मुझ से भी तुग़्यान-ए-तलब में कुछ वो भी 'ज़फ़र' अपनी तबीअत में नहीं था