मैं ज़ुल्मतों में उजाले की इक अलामत था इसी का नाम तो इस शहर में बग़ावत था मुझे मिटा के भला तू कहाँ रहा बाक़ी मिरा वजूद तिरी ज़ात की शहादत था सभी मरे हुए थे एक शख़्स ज़िंदा था उसी को मारना सब के लिए इबादत था लुटा के जान भी जिस फूल की हिफ़ाज़त की वो फूल भी तो किसी और की अमानत था गुलों को रौंद के आए हो अपने पाँव तले फ़क़त यही तिरा सरमाया-ए-शुजाअ'त था मुझे क़ुबूल कोई शख़्स भी न कर पाया मैं इस जहान में गोया कोई सदाक़त था थकन से चूर हुआ तो 'ख़िज़र' खुला मुझ पर मिरा क़ियाम भी दुनिया में इक मसाफ़त था