मज़ा गुनाह का जब था कि बा-वज़ू करते बुतों को सज्दा भी करते तो क़िबला-रू करते कभी न परवरिश-ए-नख़्ल-ए-आरज़ू करते नुमू से पहले जो अंदेशा-ए-नुमू करते सुनें न दिल से तो फिर क्या पड़ी थी ख़ारों को कि गुल को महरम-ए-अंजाम-ए-रंग-ओ-बू करते गुनाह था भी तो कैसा गुनाह-बे-लज़्ज़त क़फ़स में बैठ के क्या याद-ए-रंग-ओ-बू करते बहाना चाहती थी मौत बस न था अपना कि मेज़बानी-ए-मेहमान-ए-हीला-ए-जु करते दलील-ए-राह दिल-ए-शब चराग़ था तन्हा बुलंद-ओ-पस्त में गुज़री है जुस्तुजू करते अज़ल से जो कशिश-ए-मरकज़ी के थे पाबंद हवा की तरह वो क्या सैर चार-सू करते फ़लक ने भूल-भुलय्यों में डाल रक्खा था हम उन को ढूँडते या अपनी जुस्तुजू करते असीर-ए-हाल न मुर्दों में हैं न ज़िंदों में ज़बान कटती है आपस में गुफ़्तुगू करते पनाह मिलती न उम्मीद-ए-बे-वफ़ा को कहीं हवस-नसीब अगर तर्क-ए-आरज़ू करते